शरीर में नाड़ियों को विशेष महत्व है। नाड़ी शरीर के उन सूक्ष्म रास्तों को कहा गया है जिनसे प्राण ऊर्जा पूरे शरीर में प्रवाहित होती है। स्थूल शरीर में नाड़ियों की संख्या लाखों में बताई जाती है लेकिन हठयोग प्रदीपिका के अनुसार मनुष्य शरीर में कुल 72,000 नाड़ियां होती हैं।
नाड़ियों को नस या धमनी समझने की भूल ना करें, नाड़ियां शरीर में प्राण ऊर्जा, ब्रह्मांडीय ऊर्जा, वीर्य और कुण्डलिनी जैसे सूक्ष्म ऊर्जाओं का संचार कराती हैं। नाड़ियों का कोई भौतिक स्वरूप नहीं हैं यानी अगर आप शरीर को काटकर इन्हे खोजने का प्रयास करें तो आप इन्हें नहीं ढूंढ पाएंगे
72,000 नाड़ियों में ईड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, गांधारी, हस्तजिव्हा, कुहू, सरस्वती, पूषा, शंखिनी, पयस्विनी, वारुणी, अलम्बुषा, विश्वोदरी और यशस्विनी इन 14 नाड़ियों को महत्वपूर्ण माना जाता हैं तथा इनमें भी प्रमुख तीन नाड़ियां है।
ईड़ा जिसे चन्द्र नाड़ी कहते है पिंगला जिसे सूर्य नाड़ी कहते हैं और सुषुम्ना नाड़ी, आज भले आधुनिक विज्ञान नाड़ियों के अस्तित्व को नकारता हैं। मगर जैसे जैसे आप अधिक सजग बनने लगते हैं आप महसूस करेगें शरीर में ऊर्जा की गति अनियमित नहीं है वह तय रास्तों से गुजरती हैं
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प्रमुख नाड़ियां | Nadi yoga
मलमार्ग एवं मूत्रमार्ग जहां से पृथक होते है उसी संधि के पास कुण्डलिनी रहतीं है जो समस्त नाड़ियों को जन्म देती हैं। शरीर के 14 प्रमुख नाड़ियों में सात ऊपर को जाने वाली और सात नीचे को जाने वाली होती हैं।
अलम्बुषा : मलमार्ग से शुरू होकर मूलाधार चक्र से होते हुए मुंह में खत्म होती है। यह नाड़ी उन अंगों में ऊर्जा का संचार करती है जो दूषित पदार्थों को शरीर से निष्कासित करते हैं।
गांधारी : मूलाधार से शुरू होकर अंजना चक्र में समाप्त होती है यह दाहिनी आंख को उर्जा प्रदान करती है।
हस्तजिव्हा : मूलाधार से शुरू होकर मणिपुरा चक्र तक जाने वाली यह नाड़ी शरीर के दाहिने अंगों में उर्जा का संचार करती है।
ईड़ा : दाहिने ओर से शुरू होकर मूलाधार चक्र से ऊपर उठते हुए दाहिने नाक में खत्म होती है। इसे चंद्र नाड़ी भी कहते हैं। यह ठंडा और स्त्रियोंचित गुणों वाला होता है। यह स्नेग, प्यार, दयाभाव जैसे गुणों को बढ़ाता है
कुहू : मूलाधार चक्र से शुरू होकर स्वाधिष्ठान तक जाती है यह जननांगों में ऊर्जा का संचार करती है।
पयस्विनी : दाहिनी ओर से शुरू होकर पूषा और सरस्वती नाड़ी के साथ बाहिने कान तक जाती है यह पिंगला की सहायक नाड़ी है
पिंगला : बाहिने ओर से शुरू होकर मूलाधार चक्र से ऊपर उठते हुए बाहिने नाक में खत्म होती है। इसे सूर्य नाड़ी भी कहते हैं। यह गरम ऊर्जा और पुरुषोंचित गुणों वाला होता है। यह चेतना, तार्किक, लॉजिक, एनालिटिक गुणों को बढ़ाता है।
पूषा : मूलाधार चक्र से शुरू होकर अंजना चक्र तक जाती है तथा बाहिने नेत्र में ऊर्जा का संचार कराती हैं।
सरस्वती : मूलाधार चक्र से शुरू होकर विशुद्धि चक्र में खत्म होती है यह जीभ, मुंह और गले को शक्ति प्रदान करती है।
शंखिनी : मूलाधार चक्र से शुरू होकर अंजना चक्र तक जाती है यह दाहिने कान में ऊर्जा का संचार कराती है।
सुषुम्ना : मूलाधार चक्र से शुरू होकर सहस्त्रा चक्र में विलीन होती है इससे मध्य या मुख्य नाड़ी भी कहते है जिससे प्राण अन्य नाड़ियो में प्रवाहित होता है।
वारुणी : मूलाधार से शुरू होकर अनाहत चक्र में समाप्त होती है तंत्रिका तंत्र के द्वारा पूरे शरीर में ऊर्जा का प्रवाह कराती है।
विश्वोदरी : मूलाधार से शुरू होकर मणिपुर में समाप्त होती है पाचन तंत्र में ऊर्जा का संचार कराती है
यशस्विनी : मूलाधार से शुरू होकर मणिपुरा चक्र में समाप्त होती है तथा दाहिने अंगों में ऊर्जा का संचार कराती है।
इस प्रकार शरीर में स्थित 14 भुवन तक ये चौदह नाड़ियां विस्तारित है जिनका क्रम निम्न प्रकार से हैं – ॐ, भू, भुव, स्व, मह, तप एवम् सत्य लोक ये ऊपर के लोक है। इसके नीचे अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल एवं पाताल है। ॐ अर्थात कुण्डलिनी तक सब को आना या वहीं आकार समाप्त हो जाना है
नाड़ियों का सम्बंध इन्द्रियों से होता है, इन्द्रियां मन से संचालित होती हैं। मन की आज्ञा के अनुसार इन्द्रियां कार्य करती हैं। जैसे कार्य होता है उसकी सूचना नाड़ियां कुण्डलिनी तक पहुंचाती हैं और उसके बाद कुण्डलिनी उसका उचित अनुचित निर्णय लेकर उन संग्रहित सूचनाओं के ऊपर निर्णय लेती हैं।
अर्थात जब इन्द्रियों के विक्षोभ को नाड़ियां कुण्डलिनी तक पहुंचाती हैं तो उनके द्वारा एकत्र पूर्ववर्ती सूचनाओं में हलचल या विक्षोभ उत्पन्न होता है और जब यह विक्षोभ दूषित हुआ तब यह तीनों पदार्थों से बना तत्व या पदार्थ अधसंग्रहण द्वारा बाहर फेंक दिया जाता हैं।
उदाहरस्वरूप –
जैसे कान के द्वारा सुना गया कोई अपशब्द पूंजीभूत होकर ज्ञानेन्द्रियो की सहायक वाहिकाओं द्वारा मन को पहुचाया जाता हैं मन को इससे अपनी प्रतिष्ठा पर ठेस लगता है मन तत्काल इसके विपरीत प्रतिक्रिया के लिए सम्बन्धित नाड़ियों से सूचना कुण्डलिनी के पास घिरा आवरण तदनरूप द्रवित अन्य पदार्थ का रूप धारण कर सम्बन्धित या उस कार्य के लिए नियुक्त नाड़ी के माध्यम से मन को वापस किया जाता है और मन के द्वारा तत्काल सम्बन्धित कर्मेंद्रिय जैसे झगड़ा करने के लिए हांथ या मुंह को आदेश दिया जाता है।
इस प्रकार कुण्डलिनी के पास एकत्र पदार्थो का उपयोग मनुष्य द्वारा किया जाता है।
यदि सारे पदार्थ अपना आवरण कुण्डलिनी पर से हटा दें तो कुण्डलिनी पर पड़ा दबाव स्वरूप बोझ समाप्त हो जाएगा हैं और कुण्डलिनी हल्की होकर ऊपर उठते हुए मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मनिपुरा, अनाहत, विशुधी एवम् आज्ञा चक्र होते हुए ब्रह्मरंध्र में जाकर स्थिर हो जाती है।
जब तक कुण्डलिनी पर विविध नाड़ियों द्वारा एकत्रित संवेदनाओं – सूचनाओं का बोझ लदा रहेगा कुण्डलिनी वहीं दबी रहेगी और मनुष्य विविध दुष्चक्र में फंसा रह जाता हैं।
तीन प्रमुख नाड़ियां (ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी) | three main Nadis
शरीर के विविध अंगो से विविध संवेदनाओं या सूचनाओं या आज्ञाओं को छोटी छोटी नाड़ीयां एकत्र करके अपने से श्रेष्ठ उपर्युक्त चौदह नाड़ियों तक पहुंचाती हैं ये चौदह नाड़ीयां उन अपन सहायक छोटी नाड़ियों से इन सूचनाओं को एकत्र कर अपने से श्रेष्ठ प्रधान नाड़ियों – ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना को प्रदान करती हैं, इन सब को सुषुम्ना एकत्र कर कुण्डलिनी पर आवरण स्वरूप कवच के रूप में उसे ढंकी रहती हैं
ईड़ा नाड़ी (फेमिनिन और क्रिएटिव प्रिंसिपल)
इसे चंद्र नाड़ी भी कहते हैं यह स्त्रियोंचित गुणों वाला होता हैं यह सुषुम्ना के दाहिने ओर से प्रवाह होता है जो मेरुदंड के मूल से शुरू होकर पिंगला नाड़ी के साथ अंजना चक्र तक आती हैं और दाहिने नाक में समाप्त होती हैं।
ईड़ा नाड़ी हमारे मानसिक ऊर्जा से सम्बंधित हैं इसका रंग सफेद होता है। चंद्रमा के समान शांत ऊर्जा वाला, जिन व्यक्तियों में ईड़ा नाड़ी अधिक संतुलित होती हैं उनमें अधिकतम स्त्रियोंचित गुणों का विकास होता हैं तथा पुरुषोचित गुणों की कमी रहती हैं।
पिंगला नाड़ी (मस्कुलिन एंड एनालिटिकल प्रिंसिपल)
इसे सूर्य नाड़ी भी कहते हैं। यह सूर्य के समान गर्म ऊर्जा और पुरुषोचित गुणों वाला होता हैं। यह सुषुम्ना के बाहिने ओर होता हैं तथा ईड़ा की सहायक होती हैं।
मेरुदंड से शुरू होकर ईड़ा और पिंगला नाड़ी सभी चक्रो में एक दूसरे को स्पर्श करते हुए अंजना चक्र से होकर पिंगला नाड़ी बाहिने नथुने में खत्म होती हैं।
पिंगला नाड़ी से प्राण ऊर्जा की शुरूआत होती हैं इसका रंग लाल होता हैं इसे सूर्य से सम्बंधित माना जाता हैं। जिन व्यक्तियों में पिंगला नाड़ी अधिक संतुलित होती हैं उनमें अधिकतम पुरुषोचित गुण होते है जैसे साहस, शौर्य, पराक्रम
सुषुम्ना नाड़ी ( विनीत )
इसे ब्रम्ह नाड़ी भी कहते हैं मूल रूप से सुषुम्ना गुणहिन होती है उसकी अपनी कोई विशेषता नहीं होती, वह एक तरह से शून्यता या खाली स्थान है। अगर शून्यता है तो उससे आप अपनी मर्जी से कोई भी चीज बना सकते है। सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश हो जाएं तो आप एक नए तरह का संतुलन पा लेते है, इससे आपके अन्दर एक विशेष स्थान होता है जो किसी भी तरह की हलचल में कभी अशांत नहीं होता, जिस पर बाहरी स्थितियों का प्रभाव भी नहीं पड़ता
आप निष्पक्ष हो जाते है। आप जहां भी रहे वहीं का हिस्सा बन जाते हैं। लेकिन कोई चीज आपसे चिपकती नहीं है आप जीवन के सभी आयामों को खोजने का साहस सिर्फ तभी करते है जब आप इस स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं।
राजयोग, पतंजलि योग में जब मन को यम, नियम, आसन, प्रणायाम और प्रत्याहार से स्थिर किया जाता हैं तब सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश होने लगता है।
नाड़ी योग विज्ञान
ईड़ा और पिंगला जीवन के बुनियादी द्वैतता का प्रतीक हैं। जिसे हम परंपरागत रूप से शिव और शक्ति अथवा पुरुषोचित और स्त्रियोचित भी कहते हैं। यह हमारे दो पहलू लॉजिक (तर्क बुद्धि) और सहज ज्ञान हो सकते हैं तथा जीवन की रचना भी इसी के आधार पर होती हैं
सृजन से पूर्व सब कुछ अपने मौलिक रूप में होता है इसमें कोई द्वैत नहीं होता, मगर सृजन के साथ उसमे द्वैतता आ जाती हैं।
यहां पुरुषोचित और स्त्रियोचित लिंग भेद या शारीरिक रूप से स्त्री या पुरुष होना नहीं हैं बल्कि ये प्रकृति के कुछ खास गुण है जिन्हें पुरुषोचित और स्त्रियोचित कहा जाता हैं। आप पुरुष हो सकते है मगर यदि आपकी ईड़ा नाड़ी अधिक सक्रिय हैं तो आपमें स्त्रियोचित गुण हावी हो सकते हैं। इसी तरह पिंगला नाड़ी अधिक सक्रिय होने पर पुरुषोचित गुण हावी हो जाते हैं।
जब आप दोनों नाड़ियों (ईड़ा और पिंगला) के बीच संतुलन बना लेते हैं आप प्रभावशाली बनने लगते हैं। आप जीवन के सभी पहलुओं को समझने और अच्छी तरह संभालने लगते हैं। अधिकतर लोग ईड़ा और पिंगला में जीते और मर जाते है, मध्य स्थान सुषुम्ना निष्क्रिय बना रहता हैं।
मानव शरीर विज्ञान में सुषुम्ना सबसे महत्वपूर्ण पहलू हैं इसके मुताबिक जब ऊर्जा सुषुम्ना में प्रवेश करती हैं जीवन असल में तभी शुरू होता है।
सूर्य, चंद्र और सुषुम्ना स्वर
स्वर विज्ञान एक बहुत ही आसान विद्या है श्वास जीव का प्राण है और इसी श्वास को स्वर कहा जाता हैं। स्वरोदय विज्ञान के अनुसार श्वास अगर दाहिने नथुने से निकल रहीं हैं तो यह स्वांस पिंगला अर्थात सूर्य स्वर हैं, यह श्वास गर्म होती हैं। इसके विपरित बाहिने नथुने से निकल रहीं श्वास ईड़ा अर्थात चंद्र स्वर हैं यह ठंडी होती हैं
दोनों के मध्य सुषुम्ना का स्वर प्रवाह होता हैं। अर्थात जब श्वास दोनों नथुनों से नि:श्वास निकलने लगें तो यह सुषुम्ना स्वर हैं। उपरोक्त श्वास के निकलने की तीनों क्रियाएं ही स्वरोदय विज्ञान का आधार है।
अपनी नाक से निकलने वाली सांस को परखने मात्र से आप जीवन के कई कार्यों को बेहतर बना सकते है। समान्य अवस्था में नाक के एक ही छिद्र से हवा का आवागमन होता रहता हैं, कभी दायां तो कभी बायां, कुछ समय के लिए दोनों छिद्रों से स्वांस निकलती है सुषुम्ना नाड़ी के चलने से दोनों नथुनों से नि:श्वास स्वांस चलने लगती हैं।
बायीं तरफ से सांस का आवागमन हो रहा है यानि ईड़ा नाड़ी में वायु प्रवाह हो रहा है इसके विपरीत दायी नाड़ी पिंगला है।
नाड़ियों को कैसे खोला जाएं | nadi shodhan
नाड़ी शोधन के द्वारा बन्द नाड़ियों में भी ऊर्जा का संचार कराया जाता हैं जिसके लिए स्वर योग और स्वर साधना का उपयोग किया जाता हैं।
आप अपनी ईड़ा और पिंगला नाड़ी को स्वर योग (विशेष स्वसन क्रियाओं) के माध्यम से खोल सकते हैं। जब बाहिना स्वर चल रहा होता हैं अर्थात बाहिने नथुने से श्वास चल रही होती है तब पिंगला नाड़ी में ऊर्जा का संचार हो रहा होता है। इसी प्रकार ईड़ा नाड़ी दाहिने स्वर से खुलती हैं।
सुषुम्ना नाड़ी में ऊर्जा का प्रवाह करने के लिए हमें उस अवस्था में पहुंचना होगा जब हमारी ईड़ा और पिंगला नाड़ी में संतुलित रुप से ऊर्जा का प्रवाह हो रहा हो। यह सब तभी होगा जब आप ईड़ा और पिंगला तथा इनसे सम्बंधित छोटी बड़ी नाड़ीकाओं का शोधन कर लेंगे। जब ऐसा हो जाएगा तब सुषुम्ना से कुण्डलिनी शक्ति ऊपर को उठने लगेगी।
योग का मुख्य लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति हैं जिसे अक्सर समाधी की अवस्था में प्राप्त किया जाता है और यही पतंजलि योग सूत्र में भी बताया गया हैं।
योग के अनेक विधियां जैसे – आरंभिक शुद्धि, सत्कर्म, योगिक सील, मुद्रा, विजुलाइजेशन, सांसो को रोकना, प्रणायाम, मंत्र उच्चारण सभी मिलकर प्राण उर्जा के प्रवाह को ” ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना ” में प्रवाह होने में मदद करते हैं।
Dhyanlok के कुछ शब्द
नाड़ी योग का महत्व प्राचीन भारत में ही नहीं अपितु अभी भी महत्त्वपूर्ण है। इनसे ही प्राण ऊर्जा पूरे शरीर में प्रवाहित होती है। इस लिए nadi yoga अतुल्य है